एक खोई हुई नदी से मुलाकात
एक नदी जो समय
के थपेडों में कहीं खो गई थी
जिसकी तलाश में वर्षों से भटक
रहा था, आज अचानक
मिल गई मंगल नाथ के तट पर।
काई कीचड कंजी गंदे नालों,
शवों की राख, धोबी घाट से उतरे
कपडों के मेल, ईंट भट्टों की कजली
और निर्माल्य के नाम पर घरों/ देवालयों
के कूडे करकट ने जिसे गंदे नाले में तब्दील
कर दिया था, आज उसे अपने प्रचंड
रौद्र और प्रवाहमान रूप में देख
एक पल ठहर उस संग बतियाने और
अपने इस मूल स्वरूप में रोज - रोज
आने का आग्रह करने से खुद को
रोक नहीं पाया।
एक नदी जो मेरी कल्पनाओं
में सदियों से बह रही थी
जिसके तट की अठखेलियों मे जीवन
गुजरा और जिसके आगोश
में ही एक दिन समा जाना है उसके उफनते
रूप को देखकर सहसा खयाल आया काश!
मोक्षदायिनी का ये रूप हर
दिन होता तो कितना अच्छा होता!
लेकिन कोई बात नहीं उत्तर वाहिनी
सरिता! अब तुम लिबास बदल
भी लो तो मैं वर्षों में कभी - कभार
दिखने वाली तुम्हारी इस छवि से ही
काम चला लूंगा।
ये सोच कर कि मिली थी कोई
पतित पावनी देवी अपनी यात्रा
आगे बढा लूंगा।
शांत, स्थिर, मंथर, सिकुडी, रूके हुए
पानी वाली शिप्रा में अंतर्मन के
इन विहंगम दृश्यों की छवि मिलाकर
शेष जीवन को धन्य बना लूंगा
और इसी में हो कतरा - कतरा समाहित
एक दिन मोक्ष को पा लूंगा।
-डाॅ देवेन्द्र जोशी