हिन्दी की अस्मिता को लेकर क्यों नहीं होता बवाल
 हिन्दी की अस्मिता के सवाल पर क्यों नहीं मचता बवाल

 

डाॅ देवेन्द्र जोशी

 

 

राष्ट्रीय पुस्तक न्यास द्वारा आयोजित नौ दिवसीय पुस्तक मेले का रविवार को समापन हो गया । इससे पूर्व पूरे नौ दिनों तक हिन्दी साहित्य की 10 विधाओं के रचनाकारों ने हर शाम अपने फन का जलवा बिखेरा। जहां एक ओर बुक स्टालों पर देशभर  से आए प्रकाशकों की हिन्दी पुस्तकें अपनी सुरभि से वातावरण महका रही थी वहीं कविता, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, गीत, गजल, परिचर्चा,संवाद आदि के माध्यम से हिन्दी की बिन्दी चमकती देखी गई। लेकिना आठवें दिन व्यंग्य संगोष्ठी में उज्जैन के व्यंग्यकार मुकेश जोशी ने 'हिन्दी वीक' शीर्षक से एक चुटीले व्यंग्य के माध्यम से अंग्रेजी परस्त मानसिकता की नौकरशाही द्वारा किस तरह अंग्रेजी से चिपके रह कर हिन्दी वीक मनाने की रस्म अदायगी की जा रही है तो मेरी हिन्दी पीडा को जिसे पंख लग गए। जिसकी परिणति के रूप में सामने है ये विश्लेषण।


सितम्बर का महीना आते ही सरकारी महकमों में हिन्दी को लेकर दिवस, सप्ताह और मास मनाने की होड सी चल पडती है। हर साल हिन्दी  दिवस  के मौके पर हिन्दी  का खूब हो - हल्ला  मचता है और फिर उसे अपने हाल पर छोड़  दिया जाता है । जैसे हिन्दी  दिवस न हो , हिन्दी  की श्राद्ध  तिथि हो । हिन्दी  दुनिया  की एकमात्र  ऐसी भाषा  है जो जैसी बोली जाती है वैसी लिखी जाती है । इसका भारतीयों से रक्त संबंध का नाता है । 

 

आज हिन्दी  को राज भाषा से ज्यादा  सम्पर्क  भाषा बनाने की आवश्यकता  है । क्या वजह  है कि इतने व्यापकता  प्रचार -प्रसार  और इतने सालों  से  हिन्दी  दिवस मनने  के बावजूद  क्यों  न्यायालय  के फैसले हिन्दी  में  नहीं  लिखे जाते ?  विज्ञान  और चिकित्सा  शास्त्र  की किताबें  क्यों  हिन्दी  में  नही छपती  ? तकनीकी  , प्रबंधन  और कम्प्यूटर  में  निष्णातता  हासिल करने के लिए क्यों  अंग्रेज़ी  का सहारा लेना पड़ता  है ?  ये कुछ ऐसे सवाल हैं  जो हिन्दी  दिवस के दिन हर हिन्दी  से प्रेम करने वाले के मन में  उठना स्वाभाविक  ही है । आज आवश्यकता  इस बात की है कि हिन्दी  को सम्पर्क  भाषा बना कर उसमें  कामकाज  को बढ़ाव  दिया जाए । लेकिन  देखा यह जा रहा है कि हिन्दी  सिर्फ  अनुवाद  की भाषा बनकर  रह गई है । 

हिन्दी  का सवाल केवल भाषा का सवाल नही है । यह संस्कार  और संस्कृति  से जुड़ा  विषय  भी है । बच्चों  में  टी वी इन्टरनेट  और विडियो  गेम के बढ़ते खतरों  के लिए कहीं  न कहीं  हमारे भाषा संस्कार  भी जिम्मेदार  हैं  । आज बच्चों  की जिन्दगी  से माँ  की लोरी  के गीत और दादी -नानी की कहानी का संगीत  लुप्त  हो गया है इस कारण  उनकी रातों  की नींद  और दिन का चैन गायब हो गया है । तभी तो "ब्लू व्हेल" के  वायरस  उनकी जिन्दगी  में  प्रवेश  कर उनकी जिन्दगी को दीमक  की तरह चाट -चाट कर तबाह कर रहे हैं । 

 

अजीब  विरोधाभास  है हिन्दी  दिवस पर पर हम हिन्दी  की दुर्दशा  पर आंसू बहाते  हैं और  शेष  364 दिन अपने बच्चों  के लिए  सबसे आधुनिक  कान्वेन्ट  कल्चर  वाले अंग्रेजी  स्कूल  की तलाश  करते हैं । यह दोहरी मानसिकता  ही हिन्दी की प्रगति  के मार्ग  का सबसे बड़ा अवरोध  है । " हिन्दी  की डिग्री  वाले सडकों पर घूम रहे हैं, अंग्रेज़ी  वाले सत्ता  के गलियारों  को चूमो रहे हैं " । हमें इस मानसिकता  को गलत ठहराना  होगा। आने वाली पीढ़ी को यह विश्वास दिलाना होगा कि भाषा  तो सिर्फ एक जरिया मात्र है असली ताकत ज्ञान है जो किसी भी भाषा में हासिल कर मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। जिस दिन सबके मन में यह विश्वास बैठ जाएगा कि हिन्दी से भी ऊंची नौकरी ऊंचा ज्ञान उच्च  तकनीक  और वैज्ञानिक  ज्ञान को प्राप्त  किया जा सकता है उस दिन हिन्दी  की बिन्दी  स्वमेव  चमक उठेगी । तब  बिना हिन्दी  दिवस मनाए ही  लोग अपने बच्चों  को हिन्दी  भाषा  के पठन -पाठन  और प्रवचन  की ओर प्रेरित  करने लगेंगे।






हिन्दी पूरे विश्व में विमर्श और चर्चा के केन्द्र में है। अनुसंधान अध्ययन का सिलसिला 18 वीं सदी में प्रारंभ हुआ जो हिन्दी के लिए अति महत्वपूर्ण है। आज हिन्दी दुनिया के 114 देशों में बोली जाती है। 1 करोड़ 30 लाख से अधिक लोग भारत के बाहर हिन्दी बोलते हैं। 176 विश्वविद्यालय में हिन्दी बोली जाती है जिनमें ब्रिटेन,जापान, कनाडा,जर्मनी,सऊदी अरब के विश्वविद्यालय इसमें शामिल हैं। हिन्दी कभी सत्ता की भाषा नहीं रही। वह हमेशा से जन आन्दोलन की भाषा रही है। हिन्दी की दुर्दशा के सन्दर्भ में यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि हमारा स्वाधीनताबोध पराधीनता युग में कहीं अधिक प्रबल रहा है। हिन्दी को जन-जन तक पहुँचाने में भारतीय रेल, भारतीय सिनेमा और विज्ञापन जगत तथा विश्वबाजार की अहम भूमिका रही हैं।

 आवश्यकता राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति दिनोंदिन बढ़ती भ्रांति को दूर करने की है। इसके लिए भारतीय जनमानस को जागृत करना होगा। टेक्नोलॉजी और अनुवाद की सुविधा बढ़ने से हिन्दी का दायरा व्यापक हुआ है। रूस, अमेरिका तथा अन्य देशों से भारत आकर लोग हिन्दी सीखते हैं। आज यदि संसार में कहीं संस्कार बचे हैं तो सिर्फ हिन्दी के कारण। हिन्दी और संस्कृत के कारण ही हमारी सभ्यता और संस्कृति  का संरक्षण संभव हो पाया है। फिर भी हिन्दी को जन - जन की भाषा बनने में अनेक बाधा है जिन्हें दूर करने की दिशा में इस तरह के प्रयास सार्थक पहल हैं।

 हिन्दी की स्थिति दयनीय है। सैद्धांतिक रूप से हमने भले ही हिन्दी को सिर माथे पर बैठा रखा है लेकिन व्यावहारिक रूप से आज भी उसका स्थान दोयम दर्जे का है। आज हिन्दी अपने ही देश में एक पराई भाषा से युद्धरत है। यही स्थिति हिन्दी साहित्य की है।वर्चस्ववादी ताकतों  ने हिन्दी को बन्धक बना रखा है। सरकारें हिन्दी के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाए। हिन्दी और हिन्दी साहित्य राजनीति से जितना दूर रहेंगे उतना ही उनका भला होगा। 

हिन्दी मातृभाषा तो है ही। उसके राष्ट्र भाषा होने के लिए सबको प्रयास करना होंगे। हिन्दी में सम्प्रेषणीयता की क्षमता है। वह विचारों को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाने में समर्थ है। अंग्रेजी में  यह ताकत नहीं है। यह देश का दुर्भाग्य है कि अंग्रेजों के समय जितनी अंग्रेजी नहीं थोपी गई उससे कहीं ज्यादा आज थोपी जा रही है। आज अंग्रेजी को व्यापार बना लिया गया है। आज जिस तरह जलाशयों को बदहाल कर बोतल में बून्द- बून्द पानी बेचकर पानी से पैसा कमाया जा रहा है उसी तरह हिन्दी को उपेक्षित छोड़ अंग्रेजी का हव्वा खड़ा कर जनता को लूटा जा रहा है।






 

डाॅ देवेन्द्र जोशी मो 9977796267