स्मृति शेष : माणिक वर्मा
काल के गाल में समाना कविता से कोडे बरसाना वाले कवि का
डाॅ देवेन्द्र जोशी
किसे पता था कि अपने व्यंग्य प्रहारों से सबको जगाने वाला कवि 16 सितम्बर की रात जब सोने जाएगा तो नींद के आगोश में ऐसे समा जाएगा कि अगली सुबह उठ ही नहीं पाएगा और काल के गाल में समा जाएगा। लेकिन हुआ हुआ कुछ ऐसा ही। यहां बात हो रही है वरिष्ठ कवि/व्यंग्यकार माणिक वर्मा की जिनका 17 सितम्बर की सुबह 8 बजे निधन हो गया है। बताया जाता है कि परिजन जब उन्हें सुबह जगाने गए तब पता चला कि उनका निधन हो चुका है। देश के शीरस्थ व्यंग्य कवियों में शुमार माणिक वर्मा अपने पैने व्यंग्य से व्यवस्था की विसंगतियों पर लगातार कोडे बरसाते रहे। देश समाज के मौजूदा हालात/खामियों पर प्रहार करने वालों में वे परसाई के बाद मध्य प्रदेश के पहले ऐसे व्यंग्य कवि थे जिन्होंने कवि सम्मेलन के मंचों पर अपने चुभते हुए व्यंग्यों से धाक जमाई। बिना रूके बिना झुके बिना समझौता किए वे आग उगलते रहे। श्रोता उन्हें सुनकर गदगद होते थे ये श्रोताओं का नजरिया था लेकिन माणिक जी का मकसद साफ था कि वे किसी को हंसाने - गुदगुदाने के लिए नहीं वरन विद्रूपताओं पर प्रहार करने के लिए कलम को कागज पर चला रहे थे। उन्होंने अपनी मुखर अभिव्यक्ति की कीमत चुकाना मंजूर किया लेकिन अपने तेवर को कभी कमजोर नहीं पडने दिया।
समय के साथ कवि सम्मेलनों के मंच पर कई कवि आए और गए। कुछ तो कामयाबी की रौ में धन - पैसे और लिफाफे तक सीमित हो कर रह गए और कुछ ने सत्ता की दलाली और कवि सम्मेलनों की ठेकेदारी में 'तू मुझे बुला मैं तुझे बुलाऊं' की वेदी पर कविता को कुर्बान कर दिया। लेकिन माणिक वर्मा कविता की चिंगारी थी जिसने अपने अंदर की आग को कभी राख में तब्दील नहीं होने दिया। बल्कि साल दर साल यह आग शोला बनकर श्रोताओं की अंतःचेतना को सुलगाती रही। वे ह्रदय प्रदेश के ऐसे कवि थे जिन्होंने न केवल भारत अपितु बैंकाक, सिंगापुर, हांगकांग, नेपाल सहित दुनिया के कई देशों में अपनी शर्तों के साथ कविता के परचम को फहराया।
25 दिसम्बर 1938 को हरदा (मध्यप्रदेश) में जन्मे माणिक वर्मा मूलतः गजलकार थे। कविता के संस्कार उन्हें विरासत में मिले थे। उनके पिताजी रामा दंगल के कवि थे और गुलामी दौर में अपने गीत गजलों से जनता में स्वराज चेतना का अलख जगाते थे। हिन्दी साहित्य में एम ए माणिक वर्मा ने कवि सम्मेलन की शुरूआत मुशायरों में गजल सुनाने से की। शीघ्र ही वे व्यंग्य विधा में आए और देशभर में छा गए। यूं तो उनकी हर रचना चुटीली और मजेदार है। लेकिन "मांगीलाल और मैंने" रचना उनकी सबसे लोकप्रिय रचना है जिसकी हर मंच पर फरमाइश होती थी। यह रचना आज के राजनेताओं के चरित्र को उजागर करती है। उन्होंने कविता की छन्द मुक्त शैली की तरह ही गजलें भी लिखी। लम्बी - लम्बी कविताएं लिखने, याद रखने और सुनाने में वे जितने सिद्धहस्त थे, श्रोता भी उन्हें उतने ही चाव से सुनते थे। माणिक वर्मा की कविता अदायगी का अपना एक विशिष्ट अंदाज था जो उनकी पहचान बन गया था और उनके साथ ही चला गया। बडी विनम्रता के साथ मैं यह कहना चाहता हूं कि माणिक वर्मा सिर्फ माणिक वर्मा रहने दिया जाए। उनमें गालिब, मीर, रहीम, सूर, तुलसी, मीरा को तलाशने की नादानी हमें कहीं का नहीं छोडेगी। अगर हमारी दृष्टि इस तरह सबको इन सदियों पुरानी फ्रेम में रखकर देखती रही तो फिर हम अपने युग को अभिव्यक्त करने वाली कोई फ्रेम नहीं गढ पाएंगे। ऐसा करते हुए हम न तो माणिक वर्मा के साथ और न ही कविता और शायरी के इन माइल स्टोन के साथ न्याय कर पाएंगे। कविता इतनी आसान भी नहीं कि उठाई जुबान और तालु से लगा दी। हम भारतीयों की यही सबसे बुरी आदत है कि हम या तो किसी को मानते ही नहीं हैं और मानते हैं तो उसे इन्सान से उठाकर भगवान बना देते हैं। जैसे इन दोनों के बीच का कोई मध्यम मार्ग है ही नहीं। जरा सोचें।
काका हाथरसी पुरस्कार, ठिठोली पुरस्कार, टेपा पुरस्कार, श्री बाल पांडे पुरस्कार सहित अनेक सम्मान और परस्कारों से सम्मानित माणिक वर्मा की प्रकाशित कृतियों में काव्य संग्रह- आदमी और बिजली का खंभा, महाभारत, मुल्क के मालिकों जवाब दो, व्यंग्य संग्रह- दस्तक और गजल संग्रह- आखिरी पत्ता शामिल है। व्यंग्य हो या गजल, व्यवस्था की नाकामियों के खिलाफ आक्रोश व्यक्त करने में माणिक वर्मा का कोई सानी नहीं था। तकनीक और धन पिपासा के इस युग में भी वे संवेदनशीलता, सह्रदयता और इन्सानियत की मिसाल बने रहे। उनकी गजलों के शेर जहां एक ओर मन की ठहरी हुई झील में कंकर फेंक कर हिलोरे पैदा करने का माद्दा रखते है वहीं दूसरी ओर जिन्दगी के तपते रेगिस्तान में हरितिमा का अहसास कराने की सामर्थ्य भी उनमे है।
वर्ष 2015 के एक कवि सम्मेलन को कवर करते हुए वरिष्ठ पत्रकार और मेरे मित्र कीर्ति राणा ने कभी लिखा था कि उस शाम उन्होंने शुरूआत इस शेर से की थी-
अनमोल जान दे के मिली मुझे ये कब्र
कीमत तो देखिए जरा दो गज जमीन की
,,, माणिक वर्मा ने पन्द्रह बरस की उम्र से शेर पढना शुरू किया। लेकिन शुरूआती दिनों में तब के शायर यह भरोसा करने को ही तैयार नहीं थे कि ये उम्दा शेर माणिक वर्मा ने ही लिखे हैं।उन्हें विश्वास दिलाने के लिए माणिक वर्मा को यह कहना पडता था कि आप मुझे पहली लाईन दीजिए मैं दूसरी लाईन लिखकर उसे पूरा कर दूंगा। कई बार ऐसा हुआ भी। सारांश यह कि माणिक वर्मा हो या अपने समय से आगे चलने वाला कोई और प्रतिभावान युवा रचनाकार सबका संघर्ष प्रायः एक जैसा ही होता है। कहने को कह दिया जाता है कि प्रतिभा किसी परिचय की मोहताज नहीं होती है। लेकिन सच्चाई ये है कि जालिम दुनिया प्रतिभाओं से मुंह फेर कर चलती है और तब तक उनकी प्रतिभा का लोहा नहीं मानती जब तक कि वे आग्नि परीक्षा देते - देते जल कर राख नहीं हो जाए या अपने सत्य की रक्षा की खातिर धरती में सीता की तरह समा न जाए। शायद इसीलिए कहावत बनी होगी कि सोना अग्नि में तप कर ही कुन्दन बनता है। कविता के बिना खुद को अपाहिज जैसा मानने वाले माणिक वर्मा से कविता का साथ अंतिम समय तक नहीं छूटा। परसाई जी और सरोजकुमार से प्रभावित माणिक वर्मा का मानना था कि कविता प्रयास करके नहीं लिखी जा सकती, हालात का जब असर पडता है तो कविता खुद - ब - खुद जन्म लेती है। काश! कविता के इस मर्म को आज के राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय कवियों ने समझा होता तो शायद आज कविता के नाम पर ये खानापूर्ति देखने को नहीं मिलती। उनकी स्मृति को प्रणाम।
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माणिक वर्मा कविता की एक बानगी
मांगीलाल और मैंने
कालीदास के कल्लूओं,
कभी खोला है
वो सुनहरे इतिहास का पन्ना,
जब भगत सिंह ने असेम्बली मे बम फोड़ा,
देश को जगाया,
हमारे शरीर मे भी ऐसा करंट आया
कि देश पर मिटने के लिए
एक दर्जन बच्चे पैदा किसने किये?
मांगीलाल और मैंने!
दुनिया के सारे देश,
हमसे ज्यादा तरक़्क़ी कर रहे थे,
उनके नाज नखरे हमें अखर रहे थे,
अरे हमने भी ऐसा दाव मारा
कि सब पे भारी हो गये,
सालों से इतना क़र्ज़ा लिया
कि वो खुद भिखारी हो गये ,
पिट गया सबका दिवाला
और ये तरक़्क़ी का नया फ़ार्मूला
किसने निकाला?
मांगीलाल और मैंने!
गीदड़ के आखिरी अवतारो!
ये राजनीति तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आती है?
सत्ता किसी की हो
जनता हमेशा सताई जाती है?
खून हमेशा गरीबोें का बहा
ये चार जनों के सामने किसने कहा?
मांगीलाल और मैंने!
कामदेव की कार्बन कॉपियो!
क्या तुम और क्या तुम्हारी औकात
जिस दिन थी तुम्हारी सुहागरात,
अौर अंधेरे में दिखती नहीं थी तुम्हारी लुगाई
तब बिजली की बत्ती किसने पहुंचाई?
मांगीलाल और मैंने!
रेगिस्तान के ठूंठो!
सूखे का मजा तुमने चखा
और संतोषी माता का व्रत हमारी पत्नी ने रखा
एक उपवास में जिंदगी भारी हो गई
सुबह तक रामदुलारी थी
शाम तक रामप्यारी हो गई
चली गई सारी जवानी लेके
बुढ़ापे में ये दिन किसने देखे?
मांगीलाल और मैंने ।
नेताओं का चरित्र
सब्जी वाला हमें मास्टर समझता है
चाहे जब ताने कसता है
'आप और खरीदोगे सब्जियां!
अपनी औकात देखी है मियां!
हरी मिर्च एक रुपए की पांच
चेहरा बिगाड़ देगी आलुओं की आंच
आज खा लो टमाटर
फिर क्या खाओगे महीना–भर?
बैगन एक रुपए के ढाई
भिंडी को मत छूना भाई‚
पालक पचास पैसे की पांच पत्ती
गोभी दो आने रत्ती‚
कटहल का भाव पूछोगे
तो कलेजा हिल जाएगा
ये नेताओं का चरित्र नहीं है जो
चार आने पाव मिल जाएगा!'
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