एक और शहादत

 




 

 

 

कोरोना जंग में कर्तव्य की वेदी पर एक और पुलिस कर्मी शहीद

 

उज्जैन नीलगंगा टी आई कोरोना की भेंट चढ़

 

डाॅ देवेन्द्र जोशी

 

कोरोना संकट से जंग लडते हुए मध्यप्रदेश के इन्दौर शहर में एक पुलिस निरीक्षक देवेन्द्र चन्द्रवंशी की जान जाने के बाद दुखद खबर है कि उज्जैन के नीलगंगा टी आई पाल साहब भी कोरोना की भेंट चढ़ गये। ऊं शांति।। इससे पहले शनिवार को पंजाब पुलिस के सहायक आयुक्त भी कोरोना जंग की बलि चढ चुके हैं। अपनी जान जोखिम में डालकर कोरोना संकट में ये पुलिस कर्मी पूरी तत्परता से लाॅक डाउन का पालन करा रहे हैं ताकि यह महामारी अधिक न फैले। कोरोना संकट के दौरान सर्वाधिक दबाव अगर किस महकमे पर है तो वह देश का पुलिस बल ही है। उसकी जंग केवल पूर्ण लाॅक डाउन लगाने तक ही नहीं है बल्कि जहां - जहां शिथिलता दी जा रही है और आगे दी जाना है वहां भी लोगों से नियम का पालन करवाने का काम उसे ही करना है। 

यही नहीं प्रशासन के साथ मिलकर लोगों को बाहर निकलने से रोकना, संदिग्धों का पता लगाना, रोगियों को अस्पताल पहुंचाना, राहत सामग्री बंटवाना आदि तमाम कार्य ये पुलिस कर्मी निष्ठा व समर्पण भाव से कर रहे हैं। ऐसे में समाज का दायित्व है कि इन पुलिस कर्मियों के प्रति सद्भाव का भाव रखते हुए उन पर अवांछित नियम प्रतिबंध मे छूट के लिए दबाव न डालें और हुज्जत तथा दुर्व्यवहार न करें क्योंकि एक तरह से वे हमारे ही हित के लिए भीषण गर्मी में भी भूख प्यास की परवाह किए बिना मोर्चे पर डटे हैं। राज्य सरकार ने दिवंगत पुलिस कर्मी के परिजन को मुआवजा और नौकरी देकर अपने दायित्व का निर्वाह किया है लेकिन एक नागरिक के नाते हमारे लिए उनकी सेवा का सबसे बडा पुरस्कार यही होगा कि हर व्यक्ति पुलिस महकमे के प्रति सहानुभूति का भाव रखते हुए उन्हें अपने कर्तव्य के निर्वहन में पूर्ण सहयोग प्रदान करे।

पुलिस का काम है समाज में कानून और व्यवस्था की स्थिति को बनाए रखना। इस दायित्व को देश की पुलिस व्यवस्था अंजाम दे भी रही है। पुलिस व्यवस्था राज्यों के अधीन होने से अलग - अलग राज्यों में पुलिस की समस्याएं और समाधान की स्थिति अलग - अलग है। लेकिन समाज में पुलिस की छवि को लेकर लोगों की राय प्रायः एक जैसी ही है। पुराने समय की हिन्दी फिल्मों में भारतीय पुलिस जवान की जो छवि  पेश की गई है कि उससे ऐसा लगता है कि पुलिस अपने काम के प्रति उतनी संजीदा नहीं जितनी लोगों को उनसे अपेक्षा है। जबकि कुछ उदाहरण के आधार पर समूची व्यवस्था को लेकर धारणा बनाना ठीक नहीं है। पुलिस व्यवस्था की समस्याएं कमियां अपनी जगह है लेकिन इस बात को समझना चाहिए कि पुलिस व्यवस्था में शामिल लोग भी इन्सान हैं। उनका भी एक मानवीय चेहरा है उसे पढने की भी कभी कोशिश की जानी चाहिए। 


 जब भी बात पुलिस की आती है तो उसकी जिन्दगी की नकारात्मक छवि ही समाज के सामने आती है।पुलिस का एक सकारात्मक मानवीय चेहरा भी होता है जो प्रायः सामने नहीं आ पाता है। पुलिस एक ऐसा महकमा है जिसे सर्वाधिक राजनैतिक दबाव में रहकर काम करना पड़ता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि पुलिस पर अपना दबदबा और  प्रभाव बनाए रखने के कारण ही तमाम न्यायलयीन निर्देशों के बावजूद पुलिस सुधार पूरी तरह लागू नहीं हो पा रहे हैं। नौकरशाह और व्यवस्थापिका पुलिस सुधारों को लागू होने 

में बडी अडचन है।


इसमें कोई दो मत नहीं है कि पुलिस द्वारा अपने दबाव और प्रभाव का दुरुपयोग किये जाने के कारण पुलिस के साथ लोगों के अनुभव आमतौर पर कटु ही रहे हैं। लेकिन अपनी तमाम परेशानियों के बावजूद ऐसे पुलिस कर्मियों की भी कमी नहीं है जो मुस्तैदी और निष्ठा से अपने दायित्व का यथेष्ठ निर्वाह कर रहे हैं। पुलिस व्यवस्था के प्रति सरकार के उदासीन रवैये का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि समय की रफ्तार के साथ जहां अपराधियों की दुनिया आधुनिक संसाधन,सुविधा और संचार माध्यम से लैस हो गई वहीं पुलिसिया इन्तजाम 21 वीं सदी में भी अठारहवीं सदी के ढर्रे पर ही चल रहे हैं। पुलिस बल में कमी और सेवा शर्तों में सुधार तो ठीक पुलिस क्वार्टरों की स्थिति आज भी अपनी बदहाली की कहानी खुद बयां कर रही है। एक औसत हवलदार या सिपाही की यदि डाॅक्टरी जांच की जाए तो  वह कुपोषण का शिकार भी पाया जाएगा। ऐसे में काम के बोझ के तले दबे पुलिस कर्मियों के चेहरे पर असमय ही झुर्रियाँ नजर आने लगे या अवसाद से लेकर अन्य बीमारियाँ उसे घेरने लगे तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।क्योंकि यह सब आराम न मिल पाने और उसकी अनियमित दिनचर्या का परिणाम है। व्यस्तताओं और अवकाश न मिल पाने के चलते समय पर चिकित्सा परीक्षण या इलाज न करा पाने के कारण कभी - कभी पुलिस कर्मी की मौत भी हो जाती है और कई बार वह शराब के नशे में धुत होकर गोली चालन और गाली - गलौच जैसी विक्रत क्रियाएँ भी करने लगता है। सारांश यह कि पुलिस बल के कनिष्ठ पक्ष का एक संवेदनशील मानवीय चेहरा भी होता है जो नौकरशाही और सत्ता के  दबाव और प्रभाव के कारण कभी सामने ही नहीं आ पाता है। 


पुलिस बल का कनिष्ठ तबका किन त्रासदियों से गुजर रहा है इसकी एक बानगी भोपाल के गांधी मेडिकल कालेज द्वारा शहर के 200 से अधिक पुलिस जवानों पर किए  गए शोध के निष्कर्षों में देखने को मिलती है। शोध की रिपोर्ट के मुताबिक सातों दिन चौबीस घंटे काम करने वाले पुलिसकर्मी डिप्रेशन और अन्य मानसिक बीमारी से जूझ रहे हैं। हर पुलिस कर्मी किसी न किसी बीमारी का शिकार है। 18 प्रतिशत पुलिस कर्मियों का तनाव गंभीर स्थिति में है। जिन्हें तत्काल इलाज की जरूरत है। शोध से पता चलता है कि 78 प्रतिशत पुलिस कर्मी 12 घंटे लम्बे ड्यूटी कर रहे हैं, 78 प्रतिशत पुलिस कर्मी  अपने सैलेरी स्ट्रक्चर से संतुष्ट नहीं हैं, 92 प्रतिशत समय पर खाना नहीं खा पाते, 80 प्रतिशत 6 घंटे से भी कम सो पाते हैं, 80 प्रतिशत अपने परिवार को समय नहीं दे पाते हैं। चिकित्सकों का मानना है कि काम के के दबाव ,छुट्टी न मिल पाने, कई घंटों  की नौकरी, परिवार से दूर रहने की वजह से पुलिस कर्मी तनाव में रहते हैं। अगर बीमारियों की बात करें तो शोध के मुताबिक 9 प्रतिशत पुलिस कर्मी जोड़ों के दर्द, 8 प्रतिशत हायपर टेन्शन , 6 प्रतिशत डायबिटीज , 6 प्रतिशत त्वचा संबंधी रोग तथा 43 प्रतिशत मोटापे का शिकार हैं। 

डाॅ देवेन्द्र जोशी 85 महेश नगर अंकपात मार्ग उज्जैन मो