भारत में अरबपतियों की संख्या में वृद्धि

 

भारत में अरबपतियों की संख्या में वृद्धि

 

 

सामाजिक दृष्टि से देश को शर्मसार करने वाली हैदराबाद, दिल्ली, वडोदरा और रांची बलात्कार की घटनाओं के अलावा राजनीति में महाराष्ट्र का बेमेल गठबन्धन बीते सप्ताह की सुर्खियों में शुमार रहा। लेकिन आर्थिक दृष्टि से भी यह सप्ताह बेखबर नहीं रहा। लिहाजा इस बार चर्चा उसी की।  देश में जितने भी तरह की खाई हैं उनमें सबसे अहम है गरीब - अमीर के बीच की खाई । इस आर्थिक विषमता का ही नतीजा है कि आज एक भारत के बीच दो भारत नजर आते हैं। एक अमीरों का भारत और दूसरा गरीबों का भारत।

 इस सच्चाई के बीच गुरूवार को खबर आई कि रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आराईएल) 10 लाख करोड रूपये बाजार पूंजी वाली देश की पहली कंपनी बन गई है। टाटा कंसल्टेंसी (टीसीएस) दूसरे स्थान पर रही। अभी देश इस खबर के माएने तलाश ही रहा था कि अगले दिन यानी शुक्रवार को खबर आई कि रिलायंस के चेयरमैन मुकेश अंबानी एक और बडी उपलब्धि हासिल करते हुए फोर्ब्स मैगजीन की 'द रियल टाईम बिलियनेयस' लिस्ट के अनुसार विश्व के नौवें सबसे आमीर व्यक्ति बन गए हैं। उन्होंने गूगल के संस्थापक लैरी पेज और सर्गे बिन को पछाड कर यह मुकाम हासिल किया है।

 रिलायंस इण्डस्ट्रीज के शेयरों में जबरदस्त तेजी आने के कारण अंबानी की संपत्ति में यह इजाफा हुआ है। स्वाभाविक है कि रिलायंस और अंबानी की यह उपलब्धि उनके श्रम कौशल और प्रबंधन का नतीजा है। जिस पर एक भारतीय के नाते किसी को भी गर्व की अनुभूति होना स्वाभाविक है। लेकिन मेरी दुविधा यह है कि अंबानी की इस अमीरी पर खुशी मनाऊं या पल - पल गरीब होते देश के कोटि - कोटि लोगों की बदहाली पर आंसू बहाऊं। जिस दिन अंबानी के विश्व के नौवें अमीर बनने की खबर आई उसी दिन दूसरी प्रमुख आर्थिक खबर थी कि तमाम प्रयासों के बावजूद जुलाई- सितम्बर की द्वितीय तिमाही में भारत की आर्थिक विकास दर 4,5 प्रतिशत ही रही जो चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में 5 प्रतिशत थी। 

प्रश्न उठना लाजमी है कि जब जीडीपी निरन्तर गिर रही है, उद्योग व्यापार ठप्प हैं। क्रय शक्ति के अभाव में बाजार आर्थिक मंदी से उबर नहीं पा रहा हैं ऐसे में कुछ कंपनियां आर्थिक समृद्धि के नए कीर्तिमान कायम कर रही है तो जिस रास्ते चलकर ये अमीर और अधिक अमीर हो रहे हैं अगर देश की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण भी यदि उसी का मार्ग का अनुसरण कर ले तो न गरीब और गरीब होगा और न ही जीडीपी इस तरह रसातल में जाएगी। लेकिन अपने चाहने मात्र से क्या होता है, होता वही है जो मंजूर - ए - खुदा होता है। कौन किस रास्ते पर चले इसका विश्लेषण करने का अधिकार तो हमारे पास नहीं है लेकिन प्रसंगवश गरीब अमीर के बीच की खाई की खाई के मौजूदा प्रमाणों पर तो दृष्टि दौडाई ही जा सकती हैं।

दावोस विश्व आर्थिक मंच की सालाना बैठक से पहले जारी रिपोर्ट के मुताबिक रिपोर्ट  के मुताबिक 2018 में  भारत में 18 नए अरबपति बने। इनकी संख्या 199 हो गई। पहली बार इनकी दौलत 400 अरब डाॅलर  ( 28  लाख करोड रू से ज्याद) का स्तर पार कर गई। 2017 में उनकी संपत्ति 325,5 अरब डाॅलर थी जो 2018 में 440,1 अरब डाॅलर हो गई।यह साल 2008 की मंदी के बाद पिछले10 सालों  की सर्वाधिक  वृद्धि  है।  2013 में देश के ऊपर के 1 प्रतिशत लोगों ने कुल 15 प्रतिशत आमदनी की थी जो 2016 में बढ़कर 45 प्रतिशत हो गई। ये आयकर विभाग के अंकडे हैं। देश में सवा अरब लोगों की आय इतनी कम है कि वे टैक्स भरने लायक भी नहीं हैं। इनमें से कर चोरी करने वालों को हटा भी दिया जाए तो देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिनके पास तन ढंकने के लिए कपड़ा, पेट भरने के लिए रोटी और सर छुपाने के लिए आवास नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन जैसी न्यूनतम व्यवस्था आज भी इनके लिए किसी स्वप्न से कम नहीं है। 


 ऑक्सफैम रिपोर्ट 2018  के आंकडे भारत की आर्थिक असमानता को दर्शाते हुए बताते हैं कि साल 2017 में 1 फीसदी अमीरों का देश की कुल अर्जित सम्पत्ति के 73 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा रहा। आश्चर्य और अफसोस की बात तो यह है कि इन 1 प्रतिशत लोगों की आय में 1 साल में 20,9 लाख करोड़ रूपये की बढोतरी हुई जो देश के 217-18 के बजट के बराबर है। इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि 1 ही साल में इन अमीरों ने देश की कुल सालाना अर्जित सम्पत्ति में अपना कब्जा जमाने में 13 प्रतिशत की छलांग लगाई। यानी 2016 में जहाँ 1 प्रतिशत अमीरों का कुल आय के 58 प्रतिशत हिस्से पर  कब्जा था वह 2017 में बढ़ कर 73 फीसदी पर हो गया। अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत में अमीर कितनी तेजी से अमीर और गरीब कितनी तेजी से गरीब बनते जा रहे हैं। चूँकि सारे सर्वे अमीरों को ध्यान में रखकर किए जाते हैं इसलिए गरीब इस गणना में कहीं दिखाई नहीं देते।लेकिन इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि एक साल में 1 प्रतिशत अमीरों की सम्पदा में इतनी वृद्धि हुई है तो उसने देश के कितने लोगों को गरीब बनाया होगा?  देश के कुल अमीरों की संख्या भी बढ़ कर 101 तक पहुंच गई है। जिनकी कुल सम्पदा 20, 7 लाख करोड़ से ज्यादा है जो सभी राज्यों के बजट के बराबर है।


भारत रूस के बाद दुनिया का सबसे  अधिक आर्थिक असमानता वाला देश है। असमानता के मामले में भारत ने अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया है जहाँ कुल राष्ट्रीय आय के 37,3 प्रतिशत पर सिर्फ 1 प्रतिशत लोगों का कब्जा है। वित्तीय मामलों की  कम्पनी क्रेडिट सूइस के अनुसार भारत में 95 प्रतिशत  लोगों की सम्पत्ति  5 लाख तीस हजार रूपये या उससे कम है। 

पिछले 15 सालों में भारत की दौलत में 2,28  लाख  खरब डालर की  बढोतरी हुई जिसका ज्यादातर हिस्सा 1 फीसदी अमीरों की झोली में गया। इस तेजी से बढ़ती असमानता ने अर्थशास्त्र की उस ट्रिकन डाउन थ्योरी को भी झुठला दिया है जो यह कहती है कि अर्थव्यवस्था में पैसा आएगा तो इसका फायदा अपने आप गरीबों तक पहुंच जाएगा। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष  की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि  विगत कुछ वर्षों में भारत और चीन में जिस तरह से वित्तीय असमानता बढ़ी है अगर उसे नहीं रोका गया तो इन देशों में सामाजिक टकराव बढ सकता है।

इन रिपोर्टों और अध्ययनों से साफ है कि तीव्र आर्थिक विकास वृद्धि दर के बावजूद देश में दो भारत बने हुए हैं। जिनके बीच खाई लगातार गहरी होती जा रही है । यह किसी दैवीय कारण से नहीं बल्कि उन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण हो रहा है जिनका सबसे ज्यादा जोर तीव्र आर्थिक वृद्धि दर से पैदा हो रही आय के न्यायपूर्ण  बंटवारे के बजाय सिर्फ तीव्र आर्थिक वृद्धि पर है। लेकिन तीव्र आर्थिक वृद्धि के दावों के पीछे इस सच्चाई को लम्बे समय तक छुपाया नहीं जा सकता कि भारत तेजी से एक आसमान और विषमतापूर्ण राष्ट्र बनता जा रहा है। और आम लोग खासतौर से गरीबों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।आर्थिक असमानता से मुक्ति पाने का एक ही उपाय है गांधी जी का ट्रस्टीशिप का सिद्धांत।अगर उस पर अमल किया गया होता तो आज न एक व्यक्ति आसमान जितना ऊंचा उठ रहा होता और न ही दूसरा व्यक्ति जमीन के गर्त में समा रहा होता। 

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