एक सवाल

सभ्य समाज का ये कैसा दस्तूर ?
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कानून अंधा होता है
यह तो सुना था लेकिन
उसे लंगडा, लूला और बहरा
होते हुए भी आज देख लिया।


सबूत के अभाव में सेलीब्रिटी
का बाईज्जत बरी होना तमाचा
है लोकतंत्र के मंदिर रूपी उस
गाल पर, जिसका भवन व्यवस्थापिका 
और कार्यपालिका के बाद न्यायपालिका
के प्रमुख आधार स्तंभ पर टिका है।


समझ नही आ रहा है 
किसे दोष दूं -फुटपाथ
पर अखबार बिछाकर सोने
को मजबूर जिन्दगी/नशे में धुत्त
तेज रफ्तार गाडी दौडाती अमीर
बाप की बिगडैल औलाद या अपने
आपको जो लाचार , बेबस, अपाहिज
होकर यह सब कुछ देखने को अभिशप्त है


माफ करना मित्रों! 
अगर सभ्य समाज का यही
दस्तूर है तो मैं कहूंगा लाख दफा 
अच्छी थी
सदियों पुरानी बाबा आदम के जमाने
की जंगल के कानून की वो व्यवस्था
जिसमें आंख के बदले आंख और जान
के बदले जान के अलावा गवाह सबूत
और अगर मगर जैसे लल्लू -पंजुओं के
 लिए कहीं कोई प्रावधान नहीं था।


इससे पहले कि इन्सान के अन्दर
का शैतान जागे , ऐ सभ्य समाज के
झण्डाबरदारों ! तुम समय रहते बदल
डालो अपने इन सडे गले उसूल और कायदों
को वरना जिस गरीब की हाय से लोहा तक
भस्म हो जाता है उसके जागते ही देर नही
लगेगी तुम्हारी अव्यवस्था को सुव्यवस्था
में बदलने में।।


 -डॉ. देवेन्द्र जोशी