कच्ची उम्र के दर्शकों को भरमा रहा डिजिटल सिनेमा
फिल्म लेखक दिलीप शुक्ल का उज्जैन के प्रबुद्ध जन के साथ हुआ संवाद
उज्जैन।'फिल्म इण्डस्ट्री आज अपना आकर्षण खोती जा रही है। सिनेमा का डिजिटलाइजेशन होने से फिल्म निर्माण जहां सुलभ और सस्ता हुआ वहीं उसके स्तर में गिरावट भी आई है। शाॅर्ट फिल्में, वेब सीरिज, यू ट्यूब सिनेमा आदि के कारण फिल्मकारों की आजादी भले ही बढी है लेकिन कच्ची उम्र के युवा दर्शकों के दिल दिमाग पर इसके प्रदूषण का खतरा मंडराने लगा है।'- उक्त विचार फिल्म पटकथाकार और संवाद लेखक दिलीप शुक्ल ने उज्जैन के प्रबुद्धजनों के साथ संवाद कार्यक्रम में व्यक्त किए।
उन्होंने कहा कि नए दौर के नये डिजिटल सिनेमा में किसी तरह का सेंसर प्रतिबन्ध न होने से कंटेंट की आजादी बढ गई है। कम पैसे में कलाकार कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। नतीजतन जो फिल्में सामने आ रही है वे परिवार के साथ बैठकर देखने लायक नहीं होती है। ऐसी फिल्मों का युवा और तरूणों के मन मस्तिष्क पर प्रतिकूल प्रभाव पड रहा है। जबकि आज भी स्तरीय सिनेमा के लिए काफी संभावनाएं शेष बची है। साहित्य एक ऐसा खजाना है जिसमें से कितने भी मोती निकालने के बावजूद उसका कोष कभी कम नहीं होता।
मोहरा, अंदाज अपना - अपना घायल, दामिनी, और दबंग 1,2,3 जैसी फिल्मों के पटकथाकार और संवाद लेखक दिलीप जोशी ने कहा कि जीवन में अपनी मौलिक भाषा शैली के साथ रचकर आपने दर्शकों/ श्रोताओं के समक्ष जो परोस दिया वही आपका अपना है,बाकी सब सपना है। पहचान सिर्फ उनकी ही नहीं बनती जो पर्दे या मंच पर दिखते हैं। अपने कर्म से वे भी पहचाने जाते हैं जो पर्दे के पीछे रहकर भी रोशनी का दीया जलाते हैं। स्वयं को व्यक्त करते हुए दिलीप ने कहा कि फिल्मी दुनिया की भीड में मैं ऐसा लेखक हूं जो कामन मैन के सिनेमा के लिए काम करता है। माया नगरी के बाजार में खडा होकर भी मैं ऐसा कुछ रचना चाहता हूं जो भीड, बाजार और बिकाऊ से अलग दर्शकों की स्मृति में बना रहने वाला हो। अगर मुझे मौका मिले तो दामिनी जैसी फिल्म बार - बार करना चाहूंगा। फिल्मी दुनिया में आपको व्यावसायिक जरूरतों के मुताबिक अच्छा - बुरा सबकुछ रचना पडता है। लेकिन सच्चा सुकुन तब मिलता है जब इस आपाधापी के बीच कोई जिम्मेदरीपूर्ण याद रखने वाला काम आपकी कलम से हो जाता है।
श्री शुक्ला ने आगे कहा कि मैं उन लेखकों में से हूं जो।अपनी कहानी के अधिकारों के साथ जीने वाले हैं। अब तक जितना काम किया है उससे दर्शकों का भरपूर आशीष मिला, लेकिन इसके अलावा भी मेरे मन - मस्तिष्क में काफीषकुछ उमड - घुमड रहा है उसे बाहर लाना चाहता हूं। अपने उज्जैन प्रवास की चर्चा करते हुए फिल्म लेखक ने कहा कि उज्जैन एक पवित्र भूमि है। परस्पर प्रेम, भावनाएं, आत्मीयता अब उज्जैन जैसा शहरों में ही बची है। यहां के लोगों का आतिथ्य पाकर अभिभूत हूं। अपनी भावी योजना का जिक्र करते हुए पटकथा लेखक ने कहा कि अनेक लोग सरकारी सहायता से फिल्में बनाते हैं लेकिन अभी तक मुझे इसकी जरूरत नहीं पडी। जब आप सरकारी मदद से फिल्में बनाते हैं तो उसी अनुसार कथ्य भी गढना पडता है। उज्जैन के लोगों से मिलकर और यहां का आकर्षक परिवेश देखकर मैं यहां के लोगों के साथ मिलकर एक ऐसी फिल्म बनाना चाहता हूं जिसकी पटकथा, संवाद, पात्र, निर्देशन, एडिटिंग, वितरण सभी में यहां के लोगों की मुख्य भागीदारी हो, मार्गदर्शन के लिए मैं उनके पीछे खडा रहूं। ताकि स्थानीय प्रतिभाओं कलाकार, साहित्यकार, रंगकर्मी आदि को अपनी प्रतिभा दिखाने का यथेष्ठ अवसर मिल सके। राजकीय सहयोग पर आधारित कोई सांस्कृतिक संस्था इस तरह की पहल की अगुवाई को आगे आती है तो मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।
इस अवसर पर दिलीप जोशी का आयोजन संस्था की ओर से शाल, स्मृतिचिन्ह और पुष्पमाला पहनाकर अभिनन्दन किया गया। आरंभ में डाॅ शैलेन्द्र पाराशर, मुकेश जोशी, डाॅ देवेन्द्र जोशी, डाॅ शैलेन्द्र शर्मा, स्वामी मुस्कुराके, प्रेम पथिक, विशाल कुशवाह, दिनेश विजय वर्गीय, सुभाष परिहार, पंकज आचार्य, मनोज शर्मा, सौरभ चातक, दिनेश दिग्गज, छोटू बमने, आदि ने अतिथि का पुष्पमाला से स्वागत किया। गीतकार कुमार संभव और कवि दिनेश दिग्गज ने रचना पाठ किया। संचालन सुरेन्द्र सर्किट ने किया।