कांग्रेस में कुलबुला रहे जनाधार वाले युवा
नहीं सुधरे हालात तो आगे भी हो सकती है बगावत
डाॅ देवेन्द्र जोशी
बेशक राजनीति अनिश्चितताओं का खेल है। लेकिन मध्यप्रदेश की राजनीति में होली के मौके पर आया भूचाल इतना आकस्मिक और रंगहीन भी नहीं कि उसकी आहट और रंगत पहले से न सुनी और महूसस की जा सके। ऊपर से दिखने में भले ही ज्योतिरादित्य सिन्धिया का काग्रेस छोडकर भाजपा में शामिल होने का मामला पद, लालसा और आपसी सामंजस्य के अभाव का मामला प्रतीत हो लेकिन इसकी जडें कहीं न कहीं पार्टी में वैचारिक आधार की प्रतिबद्धता के कमजोर होने की ओर भी इशारा करती है। नेतृत्व की कमजोरी ही नहीं कांग्रेस की वैचारिक प्रतिबद्धता की डोर भी अब उतनी मजबूत नहीं रही जो कुनबे को एकजुट रख सके। जब पार्टी खुद ही धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक सरोकार और, अल्पसंख्यक हितैशी होने की अपनी वैचारिक जमीन से खिसक कर सत्ता के लिए शिवसेना जैसी हिन्दूवादी पार्टी से हाथ मिलाने से परहेज नहीं कर रही हो तो उसके नेताओं से कैसै उम्मीद की जा सकती है कि वे पार्टी की छद्म वैचारिक डोर के साथ लम्बे समय तक बंधे रहेंगे। जब सिन्धिया ने कांग्रेस छोडकर भाजपा का दामन थामा तब राहुल गांधी ने कहा कि वे विचारधार को जेब में रखकर आर एस एस की विचारधारा वाली पार्टी से हाथ मिला रहे है। लेकिन जब महाराष्ट्र में कांग्रेस कट्टर हिन्दुत्व विचारधारा वाली पार्टी शिवसेना को समर्थन देकर सरकार में शामिल होने का निर्णय ले रही थी तब उन्हें याद नहीं रहा कि कांग्रेस किस विचारधारा को जेब में रखकर किससे हाथ मिला रही है। मतलब साफ है कि हाथी के दांत दिखाने के और तथा खाने के और। पार्टी हाईकमान के मापदण्ड संगठन के लिए कुछ और तथा कार्यकर्ओं के लिए कुछ और। पार्टी जो करे वो उसकी सियासी मजबूरी और नेता कोई कदम उठाए तो विचारधारा से बगावत। किसी भी संगठन का वैचारिक आधार जब इस तरह डगमगाता है तब उसमें ऐसी ही उथल - पुथल देखने को मिलती है जो इन दिनों कांग्रेस में दिखाई दे रही है।
सिन्धिया का कांग्रेस छोडकर भाजपा में जाना इसलिए भी आकस्मिक नहीं कहा जा सकता कि वे इसके संकेत लगातार दे रहे थे। यह कांग्रेस का ऐसा आंतरिक मामला था जिसे आपसी विचार विमर्श से सुलझाया जा सकता था। लेकिन सत्ता के मद में अपने ही लोगों की अनदेखी और उपेक्षा का परिणाम अंततः कांग्रेस को वर्तमान संकट के रूप में भुगतना पडा। प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की सरकार बनने के बाद डेढ साल से अधिक का समय होने के बाद भी सिंधिया को न तो पार्टी प्रदेश अध्यक्ष पद से नवाजा गया और अब न ही उनको राज्यसभा में भेजने पर पार्टी के भीतर आम सहमति बन पा रही थी। ऐसे में उनके पास इसके अलावा कोई विकल्प शेष नहीं बचा था। कहने को कहा जा सकता है कि पद की इतनी लालसा ठीक नहीं। लेकिन जो पार्टी सत्ता के लिए खुद ही अपनी विचारधारा को दरकिनार कर भिन्न विचारधार वाली पार्टी के साथ हमझौता कर सत्ता हथियाने से गुरेज नहीं कर रही हो उसके नेता को नैतिकता और सत्तालोलुपता से बचने की सीख आखिर दे तो कौन?
अगर सिन्धिया के नजरिए से देखें तो व्यक्ति के आत्मसम्मान पर जब चोंट पहुंचती है तो कमजोर व्यक्ति भी ताकतवार हो अप्रत्याशित कदम उठाने को विवश हो जाता है। अतः घर - परिवार हो या राजनैतिक दल किसी को भी अपने सदस्यों के धैर्य की इतनी परीक्षा नहीं लेनी चाहिए कि उसका संयम जवाब दे जाए। सिंधिया का कांग्रेस छोडकर भाजपा में जाना सबक है उन पार्टी नेताओं के लिए जो पार्टी को अपनी बपौती मान बैठे थे। जब मध्यप्रदेश राजिस्थान और छत्तीसगढ में कांग्रेस की सरकार बनी थी तब कयास लगाए जा रहे थे कि एम पी में सिंधिया को और राजिस्थान में पायलट को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंप कर युवा नेतृत्व को प्रोत्साहित किया जाएगा। मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान तो ऐसा लग भी रहा था कि जैसे सिंधिया को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया जा रहा हो। विपक्षी भाजपा ने भी उन्हें मुख्य प्रतिद्वन्द्वी मानकर अपने प्रचार कैंपेन में "माफ करो महाराज" का स्लोगन देकर उन्हें टार्गेट किया था। लेकिन जब पार्टी में सत्ता आई तो न राजिस्थान में पायलट को और न ही एम पी में सिंधिया को मुख्यमंत्री बनाया गया। यदि ऐसा किया गया होता तो दोनों प्रदेशों में आज पार्टी और मजबूत स्थिति मे होती तथा लोकसभा चुनाव में भी उसका प्रदर्श बेहतर होता। यह अलग बात है कि लोकसभा का चुनाव हारने के बाद प्रदेश कांग्रेस में सिन्धिया अलग - थलग पडते गए और भाजपा से उनकी नजदीकी बढती गई जिसे कांग्रेस नेतृत्व भांप नहीं पाया या जानबूझ कर उसे अनदेखा करता रहा।
राजनीति में न कोई किसी का स्थायी दोस्त होता है न दुश्मन। यहां कब क्या हो जाए कहना मुश्किल है। आज सिंधिया से यह सवाल पूछा जा सकता है कि भाजपा मे आकर उन्हें ऐसा क्या मिल गया जो उन्हें कांग्रेस में रहते नहीं मिल पा रहा था। मुख्यमंत्री पद के वे स्वाभाविक दावेदार थे ही, देर सबेर उन्हें यह पद मिलता ही, केन्द्रीय मंत्री वे एकाधिक बार पहले ही रह चुके हैं, कांग्रेस की केन्द्रीय कार्यकारिणी सदस्य और राहुल गांधी से उनकी नजदीकियां जगजाहिर थी ही। क्या वे भाजपा में यह रूतबा हासिल कर पाएंगे!
राज्यसभा सदस्य और मंत्री पद बडी वजह थी या आत्म सम्मान - इस विषय पर मंथन जारी है। सिंधिया धारा -370 की समाप्ति पर एक ट्विट के जरिए पार्टी लाईन से अलग रूख अपना कर अपने मनसूबे पहले ही जता चुके थे। लेकिन तब किसी ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया। उपेक्षा और अनदेखी की आग में वे पहले ही झुलस रहे थे। प्रदेश में कमल नाथ और दिग्विजय सिंह की जुगलबंदी के बीच वे स्वयं को अलग - थलग महसूस कर रहे थे। उनके सडक पर उतरने वाले बयान के जवाब में कमलनाथ के प्रत्युत्तर ने आग में घी का काम किया। वैसे भी गत विधानसभा चुनाव के पूर्व राहुल गांधी के आसपास खडे सिंधिया और कमलनाथ की तस्वीर जैसा आपसी सामंजस्य इन डेढ सालों में कहीं देखने को नहीं मिला। वे लगातार प्रदेश और पार्टी आलाकमान स्तर पर अपनी उपेक्षा और अनदेखी के खिलाफ दरवाजा खटखटाते रहे। लेकिन जब उन्हें पक्के तौर पर लग गया कि कांग्रेस में कोई उनकी सुनने वाला नहीं है तो उन्होंने भाजपा का दामन थामना ही बेहतर समझा। सिंधिया तो कांग्रेस छोडकर भाजपा में चले गए उनका भविष्य जो भी होगा वह तो सारा देश देखेगा लेकिन इस सारे घटना क्रम से कांग्रेस के लिए जो बात निकल कर सामने आई है वह यह है कि यदि भविष्य में इस तरह के बिखराव को रोकना है तो उसे अपने 70 पार के नेताओं के काकस से बाहर निकल कर जनाधार वाले युवा चेहरों की ताकत को तवज्जो देनी होगी। वर्ना इस तरह की अप्रत्याशित अप्रिय स्थिति से उसे आगे भी जूझना पड सकता है।
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