कोरोना का सबसे ख़तरनाक मोड
डा देवेन्द्र जोशी
आखिर तो इतिहास में ऐसी भी घडी आई है
लम्हों ने की खता और सदियों ने सजा पाई है
वर्तमान कोरोना संकट का जब भी इतिहास लिखा जाएगा तब यह बेखौफ उभर कर आएगा कि अगर महामारी की इस जंग में लापरवाही की खताएं न हुई होती तो मुल्क आज इस जंग को जीतने के कगार पहुंचने के करीब होता। जब मैं लापरवाही कहता हूं तो उसमें हमारी जहालत, नादानियां, हठधर्मिता, उच्छृंखलता, तुष्टिकरणा से लेकर खुफिया और सुरक्षा चूक तक सब इसमें शामिल हैं।
सरकार और समाज से लेकर हर आम और खास तक आज कोरोना से जितना परेशान नहीं है उससे ज्यादा परेशान वह अपने ही लोगों के रवैये को लेकर है। जो नियमों को धता बता कर महामारी से जंग में अपनी ही जडों में मठ्ठा डालने का काम कर रहे हैं। इसमें कोई दो मत नहीं है कि भारत ने कोरोना के संकट को सबसे पहले पहचान लिया था। लगातार उस पर नजर भी रखी जा रही थी। सही समय पर लाॅक डाउन जैसा साहसिक कदम भी उठाया गया। अमेरिका, चीन, इटली, स्पेन और फ्रांस जैसे देशों की तुलना में भारत आज अगर कोरोना जंग में थोडी बेहतर स्थिति में है तो इसकी एकमात्र वजह सरकार द्वारा उठाए गए एहतियाती कदम और उसमें दिया गया देश की जनता का साथ है।
21 दिन के लाॅक डाउन के 10 दिन गुजरने के बाद इसके बेहतर परिणाम सामने आने की उम्मीद थी, कुछ सकारात्मक संकेत मिलने भी लगे थे कि यकायक मरकज का मामला सामने आने से सब गुड. गोबर हो गया। इस एक मामले ने हमारी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया, हमारे सुधार प्रयासों को इतना पीछे धकेल दिया कि लम्हों की यह मरकजी खता कहीं सदियों की सजा न बन जाए इसका संकट सिर पर मंडरा रहा है। जिस कोरोना के अप्रैल मध्य तक कमजोर पडने की उम्मीद थी अब आशंका है कि तबलीगी जमात की करतूतों की वजह से यह अप्रैल के अंतिम सप्ताह या मई के प्रथम सप्ताह तक प्रभावी रह सकता है। स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल का कहना है कि तब्लीगी जमात से जुडे कोरोना के 647 मरीज सामने आने के बाद दिल्ली में मरीजों की संख्या हर दिन तेजी से बढती जा रही है। इसके देश में आगे और तेजी से बढने की आशंका है।तब्लीगी जमात से यह वायरस कितने लोगों में फैला है यह आने वाले एक - दो सप्ताह में ही मालूम पड सकेगा।
दोषियों और खतवारों को तलाशा भी जाएगा। उन्हें सजा भी दी जाएगी। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि इससे जो क्षति हो चुकी है क्या उसकी कभी भरपाई हो पाएगी? यह एक ऐसा जुर्म है जिसकी सजा जितनों को मिलेगी उसके जख्मों की पीडा झेलने वाले उससे कहीं ज्यादा होंगे। तब्लीगी जमात के प्रमुख पर अपराध पंजीबद्ध होने मात्र से इस मामले का पटाक्षेप नहीं हो जाएगा। तफ्तीश इस बात की भी की जानी चाहिए कि जब सारे देश में सख्ती से लाॅक डाउन था, हर आम और खास को घरों में दबाव पूर्वक धकेला जा रहा था तब खुफिया एजेंसियों से लेकर मौके पर तैनात पुलिस फोर्स को क्यों यह पता नहीं चल पाया कि मरकज जैसी एक छोटी सी जगह पर इतनी बडी भीड जमा है। कोरोना से जंग में जब एक - दूसरे से दूर रहना ही बीमारी का एकमात्र इलाज है तब इतनी बडी तादाद में लोगों को एक - दूसरे के नजदीक भीड की शक्ल में आखिर कैसे रहने दिया गया।
कहने को यह सूचना तंत्र की एक मामूली लापरवाही है लेकिन इससे कोरोना के वायरस को चहुं ओर फैलने में जो मदद मिली उसका अंदाज अभी लगा पाना मुश्किल होगा। जिन धर्म गुरू और कनिका कपूर जैसे पढे- लिखे लोगों ने जानबूझ कर बीमारी को हल्के में लेते हुए इस पर पर्दा डालने की कोशिश की उनकी खता को तो इतिहास कभी माफ नहीं कर पाएगा।लेकिन जो चूक और अनदेखी तंत्र के नाते हमसे हुई उसके लिए भी हम अपनी जिम्मेदारी से बचा नहीं जा सकते। कहने वाले की जुबान थोडे ही पकडी जा सकता। आम लोग तो एक फरमान पर घरों में बन्द हो गए, जीवन - मरण से लेकर सामाजिक सरोकार तक उनने तो अपनी सारी गतिविधियां ठप्प कर ली। सिर्फ इसलिए कि कोरोना महामारी से देश सुरक्षित रहेगा तब ही हम सुरक्षित रहेंगे। और जो बन्द का उल्लंघन कर रहे थे उन्हें डंडे के बल पर घरों में खदेड दिया गया। लेकिन मजहब या मरकज के नाम पर जो लोग सरकार की आंख में धूल झोंककर देश की जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड करते रहे उनका क्या ?
चूक तो रोज कमा कर- रोज खाने वालों की जरूरत को समय पहचानने के मामले में भी हुई। सरकार घोषणाओं की डुगडुगी बजाने में ही उलझी रही और मजदूरों को एक ही रात में समझ आ गया कि यहां रहे तो कोरोना से तो बाद में मरेंगे, भूख उन्हें उसके पहले ही निगल लेगी। लिहाजा बिना समय गंवाए वे पैदल ही शहरों से अपने गांव की ओर पलायन कर गए। सरकार जब तक जागी तब तक वे अपने के गांव के काफी निकट पहुंच चुके थे। जहां से उनका लौट पाना संभव नहीं था। चलो माना कि यह सरकार कि ऐसी चूक थी जिसका सरकार समय रहते पूर्वानुमान नहीं लगा पाई। लेकिन सुरक्षा और खुफिया तंत्र की चूक ऐसी चूक है जिसने सारे किए कराए पर पानी फेर दिया।
ऐसा नहीं है कि चूक और लापरवाही का इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें सिर्फ सरकार की खामिया ही दर्ज होगी। और नागरिक के नाते हम साफ बच जाएंगे। सच तो यह है कि लाॅक डाउन की अवधि में धन्यवाद अदायगी के नाम पर सडकों और चौराहों पर उतर ढोल नगाडे और नाच - गाने का जश्न मनाने वाले हम ही लोग थे, बेवजह चौराहों का चक्कर लगा कर और घर से बाहर निकल कर बन्द को असफल बनाने वाले भी हम और हमारे भाई - बहन ही थे। इन्सानियत की हद तो तब हो गई जबकि जब हममें से ही कुछ लोगों ने इन्दौर, हैदराबाद से लेकर बैंगलुरू तक उन निहत्थे डाॅक्टरों पर पत्थर बरसाए जो मुश्किल की इस घडी में देवदूत बनकर हमारी सेवा में लगे हैं। यही नहीं बदसलूकी भी इस हद तक की गई कि डाॅक्टरों पर थूका गया उन्हे गालियां दी गई। महिला चिकित्सकों के साथ भी ये मरीज और उनके परिजन हीन हरकत करने से बाज नहीं आए।
जो चिकित्सक पहले ही पर्याप्त संसाधनों के अभाव में संकट से जझते हुए भी अपनी जान जोखिम में डालकर कोरोना संक्रमित मरीजों का इलाज कर रहे हैं उन पर पत्थर बरसा कर आखिर हम क्या संदेश देना चाहते हैं। जो समय डाक्टरों का मनोबल ऊंचा रखने का है उसमें हमारी ये हरकतें एक खता नहीं तो और क्या है। बेशक ऐसा करने वाले चन्द मुठ्ठी भर लोग हैं लेकिन उंगली तो पूरी मानवता पर उठेगी न।
वैसे तो पूरी उम्मीद है कि कोरोना से यह जंग जीत कर हम सकुशल लौटेंगे। लेकिन अगर इस जीत में थोडा विलम्ब हुआ, यह लडाई लम्बी खिंची, और हमने अपनी अपेक्षा से ज्यादा लोगों को खोया तो इसके लिए कोई और नही हम और हमारी जमात की लापरवाही ही जिम्मेदार और खतावार होगी।