सत्य घटना पर आधारित रचना-
साम्प्रदायिक सद्भाव का प्रतीक कोरोना
कुदरत का कहर सिर्फ जुल्म
ही नहीं ढाहाता मौका आने
पर इन्सानियत भी जगाता है।
रविशंकर की हुई मौत तो
बुलाने पर भी अंतिम यात्रा में
शामिल नहीं हुए रिश्तेदार,
लेकिन जब पडोस में मौत
की खबर लगी तो
बिन बुलाए दौडे चले आए
बाबू खां, जाहिद अली और
मोहम्मद इकरार।
अर्थी को कांधा देने जब
कोई नहीं आया तो
मुस्लिमों ने हिन्दू का शव
अपने कंधो पर उठाया और
उसे स्मशान तक पहुंचाया,
यही नहीं जरूरत पडने पर
ऊंचे स्वर में 'राम नाम सत्य'
भी गुनगुनाया।
इस सच पर कहूं अगर
कोरोना को 'साम्प्रदायिक
सदभाव का प्रतीक' तब भी
क्या ठहराओगे मुझे असत्य।
अरे! असत्य और फरेबी मैं नहीं
झूठे और मक्कार वे लोग
जो आंख मिचते ही दूर भागने
लगते हैं अपने उस परिजन
को हाथ लगाने से जिसे
कल तक अपना कहते
नहीं अघाते थे। उनसे तो बेहतर
हैं वे विधर्मी जिन्हें गैर मजहबी
कहकर ये ही परिजन दूर भगाते थे।
समझ नहीं पा रहा हूं
किसे अपना कहूं किसे पराया,
उसे जो सगा है या जो समय
पर काम आया।
-डाॅ देवेन्द्र जोशी